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अद्वैत आश्रम – जहां स्वामी विवेकानंद हमेशा रहना चाहते थे।

स्वामी विवेकानंद के कल्पना और विचारों का मूर्त रूप अद्वैत आश्रम, जो उत्तराखंड राज्य के चंपावत जिले में लोहाघाट के समीप मायावती नाम के स्थान में है। यह स्थान कैसे अद्वैत आश्रम के रूप में अस्तित्व में आया, इसे समझना के लिए हमें 19वीं सदी के कुछ अंतिम वर्षों से बात शुरू करनी होगी।

सन 1896 में अमेरिका से भारत लौटने से पूर्व स्वामी विवेकानंद जब लंदन में थे, तो वहां उनके अनुरागियों कप्तान सेवियर तथा श्रीमती सेवियर ने उनसे स्वीटजरलैंड में घूमने का प्रस्ताव रखा। स्वामी जी उनके साथ स्विट्ज़रलैंड घूमने गये, जहां आल्प्स में बर्फ़ीले स्थान और वहां के सबसे ऊंचे शिखर मांट ब्लांक को देखते ही अभिभूत हो स्वामी जी बोल पड़े – यहां हम लोग बिल्कुल बर्फ के बीच में है। फिर अपने देश को याद करते हुए बोले और भारतवर्ष हिम से ढके स्थान इतने दूर है कि पहाड़ों में अनेक दिन चलने के बाद ही उन तक पहुंच जा सकता है। परंतु तिब्बत की सीमा से लगे उन उतंग शिखरों की तुलना में आल्प्स की ये पर्वत माला केवल छोटी सी पहाड़ियों मात्र है। इन पहाड़ियों को देख स्वामी जी के मन में उत्तराखंड में भी, हिमालय के समीप एक मठ बनाने के विचार ने उड़ान भरी।

स्वामी जी अपनी अमेरिका यात्रा से पूर्व भी उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर चुके थे। इसके तुरंत बाद उन्होंने लंदन से अल्मोड़ा में अपने मित्र और अनुयाई लाल बद्री शाह जी, जिनके आवास पर स्वामी जी पूर्व में अपने अल्मोड़ा आगमन के दौरान ठहरते रहे थे, को वो पत्र लिखा।

मैं अल्मोड़ा में या अल्मोड़ा के पास किसी स्थान में एक मठ स्थापित करना चाहता हूं। क्या आप अल्मोड़ा के समीप उद्यान आदि से युक्त कोई ऐसा उपयुक्त स्थान जानते हैं, जहां मैं अपना मठ बना सकूँ? बल्कि मैं तो एक पुरी पहाड़ी ही प्राप्त करना चाहूंगा। 15 जनवरी 1897 को स्वामी जी अपनी विदेश यात्रा के बाद भारत पहुंचे।

भारत में वह औपनिवेशिक काल था। जिस पर यूरोपिय साम्राज्य था। ज्यादातर भारतीय, तब तक ब्रिटिशर्स की लगभग 150 वर्षों की गुलामी सहते हुए, अपना आत्म गौरव, आत्मसम्मान भूल चुके थे। और दुनिया भारतीयों को सभ्यता विहीन, धर्महीन, सपेरों और पिछड़ों का देश मानकर तिरिस्कार और अवहेलना कर समृद्ध भारतीय इतिहास और उपलब्धियों को भुला चुकी थी। तब विश्व धर्म महासभा में स्वामी के असाधारण अभूतपूर्व प्रतिनिधित्व से, दुनिया ने हिंदू धर्म की विराटता को जाना। और भारतीयता के गौरवशाली रूप से परिचय प्राप्त किया। साथ ही उनकी इस उपलब्धि और स्वामी जी के प्रयासों से भारत में पुनर्जागरण का युग आरंभ हुआ।

सन 1818 पे जून माह में जब स्वामी जी अपना स्वास्थ्य सुधारने हेतु अल्मोड़ा में निवास कर रहे थे। यह दुखद समाचार मिला कि मद्रास जिसे अब चेन्नई कहते हैं, से प्रकाशित प्रबुद्ध भारत पत्रिका के संपादक श्री राजम अय्यर का निधन हो गया।

स्वामी जी शिक्षा और मनुष्य की चेतना के जागृति के साथ अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी के विचार और संदेशों के प्रसार के उद्देश्य से आरंभ हुई इस पत्रिका को, बंद नहीं होने देना चाहते थे। तब कप्तान सेवियर ने इसे पुनर्जीवित करने से जुड़ी लागत को वहन करने का प्रस्ताव दिया। पत्रिका के पुनः प्रकाशन की तैयारी होने लगी। इसके बाद प्रबुद्ध भारत का कार्यालय उत्तराखंड में अल्मोड़ा नगर के थॉमसन हाउस नमक एक किराए के मकान में शुरू किया गया। स्वामी जी कुछ समय अल्मोड़ा रहकर वापस कोलकाता चले गये।

प्रिंटिंग प्रेस के लिए कप्तान सेवियर को अल्मोड़ा में आवश्यक निर्जनता नहीं लगी। कप्तान सेवियर और स्वामी स्वरूपानंद ने एक उपयुक्त स्थान ढूंढना शुरू किया। और वह 6000 से 7000 फिट की ऊंचाई वाले घने जंगलों वाली पहाड़ियों के बीच स्थित मायावती के सुंदर भूखंड तक जा पहुंचे। प्रबुद्ध भारत के कार्यालय के लिए इस मनोरम स्थान को 2 मार्च 1899 को खरीद लिया गया। खरीदने के बाद यहां आश्रम और पत्रिका के प्रकाशन का कार्य आरंभ हुआ। यह बिल्कुल वैसा ही रूपायित हुआ था – जैसा स्वामी जी ने कल्पना की थी।

स्वामी जी ने हिमालय में कैसे स्थान में रहने की कल्पना की थी? उसे उनके द्वारा भगिनी क्रिस्टीन को लिखे गए एक पत्र के इन शब्दों से जाना जा सकता है, जो उन्होंने यहां आने से पूर्व लिखा था। वहां कुछ पानी के झरने और एक छोटा सा सरोवर होगा। उसमें देवदार के जंगल होंगे और सर्वत्र फूल ही फूल किल रहे होंगे। उनके मध्य मेरी एक छोटी सी कुटिया होगी। बीच में साग-सब्जियों का उद्यान होगा, जिसमें मैं स्वयं काम करूंगा। और – और साथ में मेरी किताबें होंगी। और कभी कभार ही मैं किसी मनुष्य का चेहरा देखूंगा। यदि पृथ्वी मेरे निकट से ध्वंश को भी प्राप्त हो, तो मैं परवाह नहीं करूंगा तब तक मैं अपना सर जागतिक और आध्यात्मिक कार्य संपन्न कर चुका होऊँगा, और अवकाश ले लूंगा। सारे जीवन ने मुझे जरा भी विश्राम नहीं मिला, जन्म से ही मैं एक खानाबदोश बंजारा रहा हूं।

कप्तान सेवियर आश्रम के प्रबंधक थे, स्वामी जी के इन निष्ठावान शिष्य ने 28 अक्टूबर 1900 को देह त्याग दिया। स्वामी जी परिवार को सांत्वना देने के लिए पहले बार मायावती स्थित इस मठ में पहुंचे। वह अपनी यात्रा में काठगोदाम से अल्मोड़ा, और वहां से पैदल चलते हुए तीन जनवरी 1901 को मायावती स्थित इस आश्रम में पहुंचे, और 15 दिन तक रुके। भीषण ठंड के बीच स्वामी विवेकानंद अद्वैत आश्रम में, पहले कुछ दिन मुख्य भवन की दूसरी मंजिल पर रहे। लेकिन वहां बहुत अधिक ठंड होने से 9 जनवरी को वह निचली मंजिल के अंगीठी वाले कमरे में आ गये। स्वामी जी अपने प्रवास के दिनों में आसपास घूमते, साथ में ध्यान, अध्ययन और लेखन करते।

स्वामी जी की इच्छा थी कि हिमालय का यह मठ पूरी तरह से अद्वैत भाव को समर्पित हो। अद्वैत आश्रम मायावती में किसी मूर्ति या तस्वीर के आगे पूजा नहीं होती। यह स्थान ध्यान और चिंतन को अद्वैत भाव यानि दो नहीं से अध्यात्म को समर्पित है। अद्वैत विचारधारा के प्रवर्तक आदि गुरु शंकराचार्य जी के अनुसार संसार में ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है। जीव और ब्रह्म अलग नहीं है। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता। जबकि ब्रह्म तो उसके अंदर ही विराजमान है।

18 जनवरी 1901 को स्वामी जी यहां से वापस लोट गए। उनकी प्रेरणा, ऊर्जा और चरण धूलि से यह स्थान अत्यंत पवित्र हो गया। आज भी स्वामी जी के अनुयायी यहाँ विश्व कल्याण और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरंतर अग्रसर हैं।

श्रीमती सेवियर ने मायावती में एक धर्मार्थ अस्पताल भी शुरू किया था। जहां आसपास के गांव के निर्धन लोग आते, और चिकित्सा लाभ लेते। धीरे-धीरे अनेकों गांव के लोग यहां आने लगे। अस्पताल के नए भवनों की ज़रूरत हुई, आज आसपास के सैकड़ो गांव से आने वाले ग्रामीणों को, नियमित निशुल्क चिकित्सा सुविधाओं के साथ, समय- समय पर विशिष्ट रोगों की चिकित्सा हेतु, चिकित्सा शिविरों का भी आयोजन किया जाता है।

अद्वैत आश्रम मायावती से प्रबुद्ध भारत पत्रिका का कार्यालय नियमित रूप से चलता है। प्रबुद्ध भारत देश की सबसे लंबे समय से चली आ रही भारतीय पत्रिका के रूप में भी प्रतिष्ठित है।

इस आश्रम में एक सुंदर गौशाला भी संचालित होती है, जिसमें अच्छी प्रजाति की गाये, मायावती अस्पताल के मरीज़ों तथा आश्रम के निवासियों के लिए दूध उपलब्ध कराती हैं।

जल संग्रहण के लिए यहां बरसात के पानी को इकट्ठा करते कुछ छोटे जलाशय भी हैं। यहां थोड़े पैमाने पर खेती भी की जाती है।

आश्रम में एक अतिथि निवास भी है – लेकिन यहां उन्हीं को आवास के अनुमति मिलती है, जो स्वामी विवेकानंद और आध्यात्मिक धारा से जुड़े हैं। साधकों को एक बार में अधिकतम तीन दिन का आवास प्रदान किया जाता है, सिर्फ उन्हें जो गंभीरता पूर्वक प्रार्थना, ध्यान तथा विचारशील जीवन में रुचि रखते हैं। यह अतिथि निवास केवल मध्य मार्च से मध्य जून तक, और मध्य सितंबर से मध्य नवंबर तक खुला रहता है। इसके लिए आश्रम की वेबसाइट पर पूर्व में आवेदन करना होता है।

स्वामी विवेकानंद ने अल्मोड़ा के लिए कहा था – ये पहाड़, मनुष्य जाति की सर्वोत्तम धरोहरों से जुड़े हैं, यहां ना सिर्फ सैर करने का, बल्कि उससे भी अधिक ध्यान की नीरवता का, और का केंद्र होना चाहिए, और मुझे उम्मीद है की इसे कोई महसूस करेगा।